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बेटी है हमारी…

बेटी है हमारी… माननीय बाबा आमटे जी की भारत जोड़ो यात्रा अरुणाचल प्रदेश के इटानगर से प्रारंभ हुई थी। अनेक लोग इस साइकिल यात्रा में शामिल हुए थे। राह में गोलाघाट में एक दिन वे रुकेंगे, ऐसा सुना था। परंतु उस तारीख की जानकारी नहीं थी। गोलाघाट में समाचार पत्र दुकान जाकर लाना पड़ता था। कई बार बारिश होती, तो केवल समाचार पत्र लेने के लिये दुकान जाने की इच्छा न होती। इसी कारण बाबा आमटे जिस दिन गोलाघाट आनेवाले थे, उसके बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी।  उस दिन शाम को बाजार से वापस आते समय बस स्टॅण्ड के सामने के मैदान में काफी भीड़ दिखाई दी। किसी का भाषण चल रहा था। अभी तो कोई चुनाव नहीं है, तब यह भाषण कैसा ? तभी लाउड स्पीकर के कारण कुछ वाक्य कानों से टकराए। उसमें अखंड भारत, राष्ट्रीय एकात्मता इत्यादि शब्दों के कारण तुरंत बत्ती जली, "निश्चित ही बाबा आमटे !" अचानक ही भक्त को प्रत्यक्ष ईश्वर के दर्शन से जैसा आनंद होगा, वैसा आनंद मुझे बाबा आमटे जी को मंच पर देखकर हुआ। आसाम के सार्वजनिक मैदान में जो भाषण होते हैं, उनकी विशेषता यह है, की ये भाषण लोग घंटों खड़े होकर ही सुनते हैं, नीचे बैठकर न

तू ही राम है - तू रहीम है...

तू ही राम है - तू रहीम है... बहुत साल हो गये इस घटना को । देशपांडे काकु का एक दिन फोन आया। उनकी परिचित शबनम नामक एक मुसलमान लड़की मेडिकल कॉलेज के हॉस्टेल में रहती थी। परंतु हॉस्टेल में सहपाठियों की गपशप, गाने आदि के कारण उसकी पढ़ाई ठीक से नहीं हो पाती। परीक्षा तक एकाद महीने के लिये उसे रहने के लिये कमरा चाहिये है। तुम्हारे घर रहे तो चलेगा क्या ? वह स्वभाव से नेक है, ऐसा उन्होंने कहा। पढाई के लिये कमरा चाहिये है यह सुनकर मुझे भी नकार देने की इच्छा नहीं हुई। मैं ने कहा, "स्वतंत्र कमरा तो नहीं मिल सकेगा, परंतु वह मेरे घर पर अवश्य रह सकती है। वैसे मेरे घर पर कोई नहीं होता अतः वह शांति से अपनी पढ़ाई कर सकेगी।" दूसरे ही दिन शबनम सामान सहित मेरे घर पहुँच गई। एकदम गोरा रंग, बड़ी बड़ी आँखें, हँसमुख और बातूनी। मैने उसे कमरा दिखाया। उसकी पलंग के सामने ही हमारा पूजा मंदिर । सामान जमाकर थोड़ा घबराते हुए उसने पूछा - "भारती ताई, मैं सुबह-शाम नमाज पढ़ती हूँ। आपको चलेगा ?" "हाँ क्यों नहीं । मुझे कोई आपत्ति नहीं।" मैंने उसे आश्वस्त किया। "मैं भी प्रतिद

मिठास मेरी मराठी की

मिठास मेरी मराठी की आसाम राज्य के गोलाघाट गांव में विवेकानंद केंद्र के विद्यालय की इमारत का निर्माण कार्य चल रहा था। सुबह विद्यार्थियों को विद्यालय में पढ़ाना और दोपहर के समय निर्माण कार्य की देखरेख के लिये जाना, इसमें मैं पूरी तरह से उलझी हुई थी। उसमें ही आतंकवादियों की धमकियों का टेन्शन था ही। ऐसे समय में कभी कभार निराशा के बादल भी मन में जमा हो जाते। उस पर मलेरिया का बुखार हर तीन सप्ताह के बाद फिर पलटकर आ जाता। एक दिन दोपहर को ३५-४० बरस की एक महिला मुझसे मिलने आई। कहने लगी, "मेरे पिता सेवानिवृत्त शिक्षक हैं। श्री बरुआ उनका नाम । उन्होंने आपको हमारे घर चाय पीने के लिये बुलाया है। मैं अपनी ससुराल में रहती हूँ। दस-पन्द्रह दिन यहाँ हूँ। उस बीच यदि आप आ सकें तो मुझे भी खुशी होगी। " आमंत्रण स्वीकार करते हुए मैने कहा, "अभी एकदम तो मेरा आना संभव नही होगा लेकिन फुरसत से आऊंगी अवश्य । आपके पिताजी को मेरी ओर से धन्यवाद कहिये।" उसके बाद भी हर दो-तीन दिन बाद वह मुझे किसी न किसी के द्वारा संदेश भिजवाती, "हमारे घर चाय पीने आईये।" अत्याधिक व्यस्तता के कारण

स्पर्श वात्सल्य का

स्पर्श वात्सल्य का दोपहर का समय। माँ पंडित जवाहरलाल नेहरू के विषय में कुछ पढ़ रहीं थीं। उसमें उल्लेख था कि नेहरू जी की मृत्यु के उपरांत उनकी रक्षा हवाई जहाज से देश के विभिन्न स्थानों पर विसर्जित की गई। माँ ने कहा, "यह संभव हुआ क्योंकि वे देश के प्रधानमंत्री थे। एक तो आपके पास भरपूर पैसे हों, या नहीं तो राजनीति में कोई महत्वपूर्ण स्थान...मेरे समान मध्यम वर्ग के व्यक्ति की लाख इच्छा हो कि अपनी राख देश भर की मिट्टी में मिले और अनेक पवित्र नदियों में विसर्जित की जाए, तो भला उसका कोई उपयोग है क्या ?" "सच में तुम्हें ऐसा लगता है ?" मैं … "हाँ हाँ बिलकुल ऐसा ही !" माँ ने जवाब दिया। मुझे थोड़ा मजाक करने की इच्छा हुई। मैंने मेरा दांया हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठाया और नाटकीय पद्धति से कहा, "कन्या ! अंतिम क्षणों में मेरा स्मरण करना, तुम्हारी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी।" हँसते हँसते "ठीक है माताजी" ऐसा कहकर माँ पुनः पढ़ने में लग गईं। इस प्रसंग के चार वर्षों बाद दुर्भाग्य से माँ की कॅन्सर से मृत्यु हो गई । अत्यंत शांति से व प्रसन्न मु