तू ही राम है - तू रहीम है...

तू ही राम है - तू रहीम है...


बहुत साल हो गये इस घटना को । देशपांडे काकु का एक दिन फोन आया। उनकी परिचित शबनम नामक एक मुसलमान लड़की मेडिकल कॉलेज के हॉस्टेल में रहती थी। परंतु हॉस्टेल में सहपाठियों की गपशप, गाने आदि के कारण उसकी पढ़ाई ठीक से नहीं हो पाती। परीक्षा तक एकाद महीने के लिये उसे रहने के लिये कमरा चाहिये है। तुम्हारे घर रहे तो चलेगा क्या ? वह स्वभाव से नेक है, ऐसा उन्होंने कहा। पढाई के लिये कमरा चाहिये है यह सुनकर मुझे भी नकार देने की इच्छा नहीं हुई। मैं ने कहा, "स्वतंत्र कमरा तो नहीं मिल सकेगा, परंतु वह मेरे घर पर अवश्य रह सकती है। वैसे मेरे घर पर कोई नहीं होता अतः वह शांति से अपनी पढ़ाई कर सकेगी।"

दूसरे ही दिन शबनम सामान सहित मेरे घर पहुँच गई। एकदम गोरा रंग, बड़ी बड़ी आँखें, हँसमुख और बातूनी। मैने उसे कमरा दिखाया। उसकी पलंग के सामने ही हमारा पूजा मंदिर । सामान जमाकर थोड़ा घबराते हुए उसने पूछा -

"भारती ताई, मैं सुबह-शाम नमाज पढ़ती हूँ। आपको चलेगा ?"

"हाँ क्यों नहीं । मुझे कोई आपत्ति नहीं।" मैंने उसे आश्वस्त किया। "मैं भी प्रतिदिन गीता का एक अध्याय और रामरक्षा बोलती हूँ, पूजा करती हूँ। तुम्हें चलेगा ना ? " उसे भी काई समस्या नहीं थी। प्रतिदिन सुबह-शाम मंदिर के सामने उसे नमाज पढ़ते हुए देखकर मुझे भी अच्छा लगता था। 

मुझे सुबह आठ बजे ही ऑफिस जाना होता था। भगवान की पूजा करके ही मैं ऑफिस जाया करती थी। बगीचे में फूलों की कोई कमी न रहती। अतः प्रतिदिन फूलों की सुंदर सजावट भी भगवान के सामने होती। एक दिन देर रात तक पुस्तक पढ़ते रहने के कारण सोने में देर हो गई। और सुबह भी नींद जरा देर से खुली। भगवान की पूजा किये बिना ही मैं ऑफिस चली गई। हमेशा की तरह दोपहर ढाई बजे मैं ऑफिस से वापस आई। शबनम ने दरवाजा खोला। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें आँसुओं से भरी हुई थीं। मैं एकदम डर गई।

"क्या हुआ शबनम ?" मैं l

"भारती ताई, आप मुझे डांटेंगी तो नहीं ना ? मेरे हाथों एक बड़ी भूल हुई है।" शबनम सिसकते हुए बोली। 

"नहीं डाटूंगी । परंतु बताओ तो हुआ क्या है ? बताओगी नहीं तो मुझे कैसे समझ आयेगा ?"
उसका रोना और बढ़ गया तो मेरी धड़कनें तेज हो गईं। मन में नाना शंकाएं। हाध पकड़कर मुझे वह अपने कमरे में लेकर गई। रंगोली और फूलों की सजावट करके उसने भगवान की पूजा की थी और मुझे तो मंदिर और दिनों से भी अधिक सुंदर दिखाई दे रहा था।

"आप प्रतिदिन पूजा करके जाती हैं तो पढ़ाई करते समय मुझे बहुत प्रसन्नता का अनुभव होता है। आज आप बिना पूजा किये चली गईं। मंदिर में मुरझाये हुये फूल मुझसे देखे नहीं गये। परंतु पूजा करने के बाद मुझे बहुत घबराहट हुई। मैं मुसलमान, आपके भगवान को स्पर्श करने से आप गुस्सा हो जायें तो ? सॉरी ताई, मुझसे गलती हो गई। " उसकी आँखें अभी भी डबडबाई हुईं।

परंतु मुझे तो हँसी आई। उसकी पीठ पर थपकी देते हुए मैंने कहा, "तुम तो पागल हो एकदम। गुस्सा नहीं, मुझे आज बहुत खुशी हुई है। इतना ही नहीं, बल्कि मंदिर के भगवान भी आज मुझे अधिक प्रसन्न लग रहे हैं। और ये "आपके भगवान" क्या है ? तुम्हारे दिमाग में यह किसने भरा है ? बेटा, अल्लाह क्या और ईश्वर क्या, ये मात्र प्रतीक हैं सद्गुणों के।"

***

ऐसा ही एक चिरस्मरणीय प्रसंग। 

अंतर्राष्ट्रीय युवा वर्ष के उपलक्ष्य में संपूर्ण भारत के अनेक विश्वविद्यालयों से, युवक शिविर के लिये, विद्यार्थी कन्याकुमारी के विवेकानंद केंद्र में आए थे। उसमें दिल्ली के जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के कुछ विद्यार्थी भी थे। अन्य सभी कार्यक्रमों में बड़े उत्साह से वे सहभागी होते, परंतु सुबह-शाम की प्रार्थना के लिये वे अनुपस्थित रहते। उनका लीडर गजाली इस विषय में अत्यंत कट्टर था। मैंने उसे प्रार्थना का अर्थ समझाया और साथ साथ यह भी समझाने का प्रयास किया कि इसमें कुछ भी अनुचित नहीं और यह केवल हिंदुओं के लिये है ऐसा बिलकुल भी नहीं है। परंतु यह बात उसके गले न उतरी । अंततः मैंने उसे कहा, शाम की प्रार्थना के समय आप लोग सीढ़ियों पर ही रुकें। पहली प्रार्थना सुनने के बाद आप लोगों को प्रार्थना गृह में आकर बैठने की इच्छा हो तो अंदर आ जाना। उन्होंने यह मान्य किया। ऋग्वेद के ऐक्य मंत्र का अर्थ मैंने उसे पहले ही बताया था। ऐक्य मंत्र व अन्य एक दो प्रार्थना गाने के बाद मैंने एक प्रार्थना शुरु की।
तू ही राम है तु रहीम है 
तू करीम कृष्ण खुदा ही है 
तेरी जात पाक कुरान में
तेरे दर्श वेद पुराण में 
गुरुग्रंथ जी के बखान में 
तू प्रकाश अपना दिखा रहा ...


प्रार्थना पूर्ण होने के बाद मैंने पीछे मुड़कर देखा। जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के शिविरार्थी भी आँखें मूंदकर हाथ जोड़कर बैठे थे। 

प्रार्थना गृह के बड़े चिरागदान (समई) में पांच बत्तियाँ जल रही थीं। मुझे प्रतीत हुआ - एक बत्ती हिंदुओं की, दूसरी मुसलमानों की, तीसरी सिक्खों की, चौथी बौद्धों की और पांचवी क्रिश्चनों की। उनका प्रकाश सभी दिशाओं को आलोकित कर रहा है। 

दूसरे दिन प्रार्थना के लिये मेरे बिना कुछ कहे, जामिया मिलिया के शिविरार्थी आकर बैठे थे। सभी के हाथों में प्रार्थना की पुस्तकें थीं। हमारे स्वरों में स्वर मिलाकर वे गा रहे थे ....

ॐ सं गच्छध्वं, सं वो मनांसि जानताम्। 
देवा भागं यथा पूर्वे, संजानाना उपासते ॥
समानो मंत्रः, समितिः समानि।
समानं मनः सह चित्तमेषाम्। 
समानमंत्रमभिमंत्रयेवः, समानेन वो हविषा जुहोमि॥
समानी व आकूतिः, समाना हृदयानिवः। 
समानमस्तु वो मनो, यथा वः सु सहासति ॥
॥ ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥ 


भारती ठाकूर, नर्मदालय, 
लेपा पुनर्वास (बैरागढ़) 
जिला - खरगोन 
मध्य प्रदेश

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