स्पर्श वात्सल्य का


स्पर्श वात्सल्य का

दोपहर का समय। माँ पंडित जवाहरलाल नेहरू के विषय में कुछ पढ़ रहीं थीं। उसमें उल्लेख था कि नेहरू जी की मृत्यु के उपरांत उनकी रक्षा हवाई जहाज से देश के विभिन्न स्थानों पर विसर्जित की गई। माँ ने कहा, "यह संभव हुआ क्योंकि वे देश के प्रधानमंत्री थे। एक तो आपके पास भरपूर पैसे हों, या नहीं तो राजनीति में कोई महत्वपूर्ण स्थान...मेरे समान मध्यम वर्ग के व्यक्ति की लाख इच्छा हो कि अपनी राख देश भर की मिट्टी में मिले और अनेक पवित्र नदियों में विसर्जित की जाए, तो भला उसका कोई उपयोग है क्या ?"

"सच में तुम्हें ऐसा लगता है ?" मैं …

"हाँ हाँ बिलकुल ऐसा ही !" माँ ने जवाब दिया।

मुझे थोड़ा मजाक करने की इच्छा हुई। मैंने मेरा दांया हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठाया और नाटकीय पद्धति से कहा, "कन्या ! अंतिम क्षणों में मेरा स्मरण करना, तुम्हारी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी।"

हँसते हँसते "ठीक है माताजी" ऐसा कहकर माँ पुनः पढ़ने में लग गईं। इस प्रसंग के चार वर्षों बाद दुर्भाग्य से माँ की कॅन्सर से मृत्यु हो गई । अत्यंत शांति से व प्रसन्न मुख मुद्रा से उन्होंने इस जग से विदा ली । मैंने जो मजाक उनसे किया था वह मेरे दिमाग से निकल ही नहीं रहा था। उन्होंने अंतिम क्षणों में किसे याद किया होगा ? मुझे लगता है अवश्य ही उन्होंने उनके लाडले शंभू महादेव का स्मरण किया होगा। गाँव जाते समय उनकी अनुपस्थिति में घर में क्या क्या काम करना है, वे हम भाई बहनों को बतातीं, ठीक उसी सहजता से उन्होंने ईश्वर को भी हममें से प्रत्येक के बारे में निश्चित ही कुछ न कुछ बताया होगा। मेरे विषय में उन्होंने कहा होगा, "स्वाभिमान और धैर्य से जीवन जीने के संस्कार मैनें दिये हैं उसे । अकेली होने पर भी उस पर माया करने वाले बहुत लोग हैं। वह चिंता नहीं है मुझे। परंतु कभी कभी ये लड़की कुछ अधिक ही साहस दिखाती है। ऐसे समय उसकी रक्षा करना "। 

माँ की इच्छानुसार पूना की विद्युतदाहिनी में उनका अंतिम संस्कार किया गया। मैने अपने सभी रिश्तेदारों को माँ की इस इच्छा के बारे में जानकारी दी, कि देशभर में विभिन्न स्थानों व अनेक नदियों में उनकी रक्षा का विसर्जन हो। भले ही मजाक में हो, लेकिन ऐसा वचन मैंने उन्हें दिया है और मै वह वचन निभाऊंगी। मई १९८४ से १९८६ के दौरान हिमालय से कन्याकुमारी के महासागर तक मैंने उनकी रक्षा का विसर्जन अनेक स्थानों पर किया।

फरवरी १९८५ । उत्तर काशी के नेहरू इंन्स्टिट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग इस संस्था का एडवेंचर कोर्स पूरा कर मैं वापसी के मार्ग पर थी। मेरे साथ मेरी नवपरिचित मित्र विजया भी थी। राह में ऋषिकेश में रुककर माँ की रक्षा गंगा में विसर्जित कर उसके पश्चात आगे दिल्ली जायें ऐसा हम दोनों ने तय किया। विजया भी बड़े प्रेम से, सहर्ष मेरे साथ रुक गई। हम दोनों ने निश्चय किया कि भीड़भाड़ के स्थान पर रक्षा विसर्जन न करते हुए कुछ दूर जाकर करेंगे। फूलों की दुकान से एक बडा दोना भरकर फूल खरीदे। दोनो गंगा किनारे चल रहे थे, निःशब्द । विजया मेरी मनःस्थिति भलीभाँति समझ रही थी। तीन चार कि.मी. चलने पर हम रुक गये। घनी झाड़ियाँ और किनारे पर बसे हुए कुछ आश्रम-मठ । रास्ता निर्मनुष्य तो नहीं था परंतु अधिक भीड़ भी नहीं थी। आश्रम के कुछ संन्यासी आस-पास दिखाई दे रहे थे।

मेरी सॅक संभालते हुए विजया गंगा किनारे बैठी थी। हाथों में फूलों से भरा दोना और स्व. माँ की रक्षा की छोटी सी पुड़िया लेकर मैं गंगा के पानी में प्रविष्ट हुई। स्वच्छ, निर्मल पानी। नदी के तल के पत्थर आदि भी स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। दोपहर के दो बजे थे, फिर भी पानी एकदम बर्फ जैसा ठंडा था। प्रवाह का वेग भी बहुत अधिक था। घुटनों तक पानी में रुककर मैंने मेरे हाथ की रक्षा की पुडिया दोने के फूलों पर उंडेल दी। उस समय मेरे मन में निश्चित क्या विचार थे, कह नहीं सकती, परंतु अनजाने ही आँखों से अश्रुधाराएं बह निकलीं। कब तक मैं वैसे ही खड़ी थी, यह भी याद नहीं। अचानक पीछे से मेरे कंधों पर किसी ने हाथ रखा। लगा, यह स्पर्श जाना पहचाना सा है। पीछे मुड़कर देखा, तो ५०-५५ वर्ष की एक संन्यासिनी। मुख पर अत्यंत प्रेम का भाव ! इन्हें तो मैं जानती भी नहीं, तब यह स्पर्श पहचाना सा क्यों लगा ? शांत स्वर में, धीरे से मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा, "बेटी, यदि अपने दुःख से आँखों में आँसू आते हैं, तो उनका कोई मोल नहीं होता। लेकिन यदि दूसरों का दुःख देखकर आँखों में आँसू आते हैं, तो उनका मोल असली मोतियों से भी अधिक होता है।"

"जी, मैं इसे हमेशा याद रखूगी " बस्स ! इतना ही हमारा संवाद। "खुश रहो बिटिया" मेरे सिर पर हाथ फेर कर ऐसा कहते हुए वे वहाँ से चली गई। तब भी अनुभव हुआ कि यह स्पर्श जानापहचाना है। हाथों का फूल का दोना मैंने धीरे से गंगा के प्रवाह में छोड़ दिया। माँ की आत्मा क्या यह सब कुछ देख रही होगी ? यदि हाँ तो उन्हें क्या लग रहा होगा ? १९८५ की यह घटना। अब लगता है, ऐसे विचार उस कच्ची उम्र में आना स्वाभाविक ही तो था। 
नाशिक तक की वापसी की यात्रा में "मुझे उस साध्वी का स्पर्श जाना-पहचाना सा क्यों लगा " इस एक ही विचार ने मुझे घेर रखा था। परंतु उसका कोई उत्तर मिला नहीं।

आज इस घटना को शब्दबद्ध करते समय अचानक यह पहेली सुलझ गई। क्यों लगा था वह स्पर्श पहचाना सा ? क्योंकि प्रत्येक स्त्री में स्वभावतः रहने वाली वात्सल्य भावना का स्पर्श ही तो था वह !

भारती ठाकूर,
नर्मदालय, लेपा पुनर्वास (बैरागढ)
जिला - खरगोन

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